Tuesday, 10 December 2013

अधिकार मांगता हूँ मैं ...

"मानव अधिकार दिवस" के समर्थन में एक प्रयास- 
  

पेट में लगी जो भूख आँख से झलक रही,
दूध कैसे मांगू देख माँ भी है तड़प रही,
चार रोज गुजरे तन दाने को तरस रहा,
और तेरे घर में कैसा स्वाद है बरस रहा|

न सुबह की चाय न शाम का तंदूर,
दिन में रोटी एक बार मांगता हूँ मैं,
जो दिया खुदा ने पर छीन तुमने लिया,
पेट भरने का अधिकार मांगता हूँ मैं ||

बाप ने करज लिया,पर कम मैं हूँ कर रहा,
वो तो मर चुका है पर आज मैं हूँ मर रहा,
खेती-बारी छोड़ मल –मूत ताक उठा लिया,
अपने स्वाभिमान को नम आँखों में गिरा लिया|

न मंत्री की कुर्सी न अफसरी की नौकरी,
सर उठाने लायक रोजगार मांगता हूँ मैं,
जो दिया खुदा ने पर छीन तुमने लिया,
काम करने का अधिकार मांगता हूँ मैं ||

अंगूठाछाप था जो मैं, घर-बार सारा छीन गया,
सौ रुपये के नोट को मैं दस हज़ार गिन गया,
अत्याचार शोषण है पर मैं लड़ नहीं सकता,
नियम कानून सब तो है पर मैं पढ़ नहीं सकता|

न तकनीकी ज्ञान न हि वेड न हि शाश्त्र,
बस काले अक्षरों का आधार मांगता हूँ मैं,
जो दिया खुदा ने पर छीन तुमने लिया,
पढ़ने लिखने का अधिकार मांगता हूँ मैं ||


खून बहा सर कटे, तन को ही कुचल दिया,
जो बच गया उसका तो धर्म ही बदल दिया,
मंजिल तो एक ही है, बस रास्ते अलग है,
क्यूँ फिर एक धर्म सही और दूसरे गलत है|

न मंदिर न मस्जिद न चर्च न गुरुद्वार,
अपने दिल का टुकड़ा हि उधार मांगता हूँ मैं,
जो दिया खुदा ने पर छीन तुमने लिया,
मोक्ष पाने का अधिकार मांगता हूँ मैं ||


मैं जो गया मंदिर मुझे नीच कह भगा दिया,
काम माँगा तो पाखाने की सफाई पर लगा दिया,
मेरी परछाई को भी छूत मानते है सब,
इंसान हूँ पर जिंदा भूत मानते है सब|

न इज्जत न शोहरत न रुतबा न दौलत,
साँसे चल सके बस उतना प्यार मांगता हूँ मैं,
जो दिया खुदा ने पर छीन तुमने लिया,
जिंदा रहने का अधिकार मांगता हूँ मैं||

~ 'शेखर'









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